Tuesday, October 19, 2010

कुछ कुछ , कभी कभी

समंदर सोखता सूरज
पर आँखों में अब भी बची नमी है,
है कहने को आदमी यहाँ,
जाने क्यों एक इंसान की कमी है.
बुला लो राम को फिर से
कुछ फ़रियाद अनसुनी है,
कब जानोगे तुम मुझे,
की मेरे अन्दर ही आरुनी है,
विश्व मेरा बड़ा है तो क्या,
चाहिए मुझे दो गज ज़मीन है,
बाकि जो बची जगह है,
वोह मेरे लिए मरुभूमि है,
चुभ गए कांटे पैरो में तो क्या,
ये राह तो मैंने ही चुनी है,
खड़ा हो जाने दो मुझे अपने दम पर,
तो क्या हुआ जो चोट अंदरूनी है,
कुछ अलग राग सुनाओ मुझे,
ये राग कुछ सुनी सुनी है,
अब तो दर्द भी नहीं होता दोस्तों,
मुझे पता है कौन यहाँ खुनी है,
मेरे घर को बम से तोडा तुमने
ये कर्म कितना निंदनीय है,
रंग तो लाल ही है सभी का
बाकी रंग तो फाल्गुनी है

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