Friday, February 22, 2013

डोर

कुछ उलझे हुए धागों का 
छोर ढूँढता हूँ 
सन्नाटा कितना गहन है 
कहीं शोर ढूँढता हूँ 
अब ना दिन चाहिए न रात 
थोडा भोर ढूँढता हूँ 
जो बिन बदल नाचे 
ऐसा कोई मोर ढूँढता हूँ 
इक बात जो हिल दे ज़मीरो को 
झकझोर ढूँढता हूँ 
नशे में भूल  मैं खुद को 
मदिरा सराबोर ढूँढता हूँ 
रास्ते की तलाश में, रास्ते पर 
खड़ा चारो ऒर ढूँढता हूँ 
कटी पतंग का छूटा हुआ 
वो डोर ढूँढता हूँ।
तुम नहीं हो, कहीं नहीं हो 
फिर भी ना जाने क्यों 
वोह ह्रदय कठोर ढूँढता हूँ। 

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